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दत्त जयंती – एक सांप्रदायिक जन्मोत्सव ! ( ARTICLE )

दत्त जयंती – एक सांप्रदायिक जन्मोत्सव !
मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र  पर सायंकाल के समय दत्त भगवान का जन्म हुआ, इसलिए इस दिन दत्त का जन्मोत्सव सभी दत्त क्षेत्रों में मनाया जाता है l
1. दत्त जयंती का महत्त्व – दत्त जयंती के दिन दत्त तत्त्व पृथ्वी तल पर सर्वसामान्य दिन की अपेक्षा 1000 गुना अधिक कार्यरत रहता है l इस दिन दत्त की मनोभाव से नाम जप आदि  उपासना करने से दत्त तत्त्व का अधिकाधिक लाभ मिलने में सहायता होती है l
2. जन्मोत्सव मनाना –  दत्त जयंती मनाने के संबंध में शास्त्रोक्त कोई विशिष्ट विधि नही है l  इस उत्सव से सात दिन पूर्व गुरुचरित्र ग्रंथ का पारायण करने की पद्धति है l इसे ही गुरुचरित्र सप्ताह ऐसे कहा जाता है l भजन, पूजन और विशेष रूप से कीर्तन वगैरह भक्ति के प्रकार चलन में है l महाराष्ट्र में औदुंबर, नरसोबा की वाडी, गाणगापुर इत्यादि दत्त क्षेत्रों में इस उत्सव का विशेष महत्त्व है l तमिलनाडु में भी दत्त जयंती की प्रथा है l दत्त जयंती के दिन कई स्थान पर दत्तयाग किया जाता है l
दत्तयाग : दत्तयाग में पवमान पंचसूक्त की आवृत्ति (जप) और इसके दशांश अथव तृतियांश घृत से हवन किया जाता है l दत्तयाग के लिए करने वाले जप की संख्या निश्चित नही है l स्थानिक पुरोहितों के आदेशानुसार जप और हवन किया जाता है l
पुराणों के अनुसार जन्म का इतिहास – अत्री ऋषि की पत्नी अनसूया पतिव्रता थी l पातिव्रत्य के कारण उसमें इतना सामर्थ्य आया कि, इंद्रादि देव भी भयभीत हो गए और ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास जाकर उन्होंने कहा कि, ‘‘उनके वर के कारण किसी को भी देवताओं का स्थान मिल सकता है अथवा कोई भी देवताओं को मार सकता है ; इसलिए आप इस पर कुछ  उपाय करो, अन्यथा हमें उनकी सेवा करनी पड़ेगी ’’ यह सुनकर त्रिमूर्ती ने कहा , ‘‘कितनी बडी पतिव्रता सती है, वह हम देखते हैं ’’
एक बार अत्रि ऋषी अनुष्ठान के लिए बाहर गए तब अतिथि के वेश में त्रिमूर्ती उनके घर आए और उन्होंने अनुसूया से भिक्षा मांगी l उस पर अनुसूया ने बताया, ‘‘ऋषी अनुष्ठान के लिए बाहर गए है l उनके आने तक रुके’’ तब त्रिमूर्ती ने अनुसूया को कहा, ‘‘ऋषियों को लौटने में समय लगेगा l हमें बहुत भूख लगी है l तुरंत भोजन दो, अन्यथा हम दूसरी जगह जाएंगे l `आश्रम में आने वाले अतिथियों को आप इच्छानुसार भोजन देते हैं’, ऐसे हमने सुना है; इसलिए इच्छा भोजन करने के लिए हम आए है ’’अनुसूया ने उनका स्वागत किया और उनको भोजन के लिए बैठने की विनती की l वे भोजन के लिए बैठे l जब वो भोजन परोसने आई तब उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा सुंदर रूप देखकर हमारे मन में इच्छा हुई की, तुम विवस्त्र हो कर हमें भोजन परोसो। ’’ उसपर ‘अतिथी को विन्मुख भेजना अयोग्य होगा l मेरा मन निर्मल है l मेरे पति का तपोबल मुझे तारेगा ’, यह विचार कर, रसोई में जा कर उसने पति का चिंतन कर के, ‘अतिथी मेरे बच्चे है’ यह भाव रखा और निर्वस्त्र होकर भोजन परोसने आई l उसने देखा अतिथियों के स्थान पर रोते हुए तीन छोटे बच्चे थे ! उनको गोदी में लेकर उन्होंने उनको स्तनपान करवाया और बच्चों का रोना रुक गया l इतने में अत्रि ऋषि आए l अनुसूया ने उनको सभी वृत्तान्त बताया l उसने कहा, ‘‘स्वामिन् देवेन दत्तं ।’’ इसका अर्थ ऐसा है – ‘हे स्वामी, भगवान द्वारा दिए हुए (बालक)।’ इस प्रकार अत्रि जी ने उन बच्चों का नामकरण ‘दत्त’ किया l बच्चे झूले में रहे और ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके सामने खडे होकर प्रसन्न हो कर कहा ‘वर मांगो’ l अत्रि और अनुसूया ने ‘बालक हमारे घर रहे ’, ऐसे वर मंगा l आगे ब्रह्मदेव से चंद्र, विष्णु से दत्त और शंकर से दुर्वासा हुए l तीनों में से चंद्र और दुर्वासा तप करने के लिए अनुमति लेकर चंद्रलोक और तीर्थक्षेत्र चले गए  l तीसरे देवता दत्त विष्णु कार्य के लिए भूतल पर रह गए l
दत्त अवतार
दत्त के परिवार का भावार्थ – दत्त के पीछे जो गाय खडी है अर्थात पृथ्वी और चार श्वान अर्थात चार वेद l औदुंबर का वृक्ष दत्त का पूजनीय रूप है ; क्योंकि उसमें दत्त तत्त्व अधिक प्रमाण में है l
भगवान दत्त गुरू ने पृथ्वी को गुरु माना और हमें पृथ्वी जैसी सहनशील और सहिष्णु होना चाहिए ऐसी सीख ली l अग्नि को भी गुरु मान कर, यह देह क्षणिक है, ऐसी सीख अग्नि की ज्वाला से ली l इस प्रकार से चराचर के प्रत्येक वस्तु में ईश्वर का अस्तित्व देखने के लिए दत्तगुरू ने चौबीस गुरु किए  l `श्रीपाद श्रीवल्लभ’ दत्त का प्रथम अवतार,`श्री नृसिंह सरस्वती’ दूसरा अवतार,`माणिकप्रभु’ तीसरा और `श्री स्वामी समर्थ महाराज’ यह चौथा अवतार रहा l यह चार पूर्ण अवतार है इनके अतिरिक्त अंशात्मक अवतार अनेक है l जैन पंथी `नेमिनाथ’ को दत्त गुरु के रूप में देखते है और मुसलमान `फकीर के वेश में ‘ देखते है l
भगवान दत्त प्रतिदिन बहुत भ्रमण करते है l वे स्नान के लिए वाराणसी व चंदन लगाने के लिए प्रयाग जाते है, तो दोपहर की भिक्षा के लिए कोल्हापुर जाते है और दोपहर का भोजन पांचालेश्वर, बीड जिले में गोदावरी नदी के पात्र में लेते है l तांबुल भक्षण के लिए मराठवाडा में बीड जिले में राक्षसभुवन जाते है, तो प्रवचन और कीर्तन सुनने के लिए नैमिष्यारण्यात बिहार जाते है l निद्रा के लिए मात्र माहूरगड पर जाते है और योग गिरनार पर करते है l
दत्तपूजा के लिए सगुण मूर्ति की अपेक्षा चरण पादुका और औदुंबरवृक्ष की पूजा की जाती है l पूर्व के काल में मूर्ति अधिकतर एकमुखी रहती थी l परन्तु अभी त्रिमुखी मूर्ति अधिक प्रचलित है l भगवान दत्त `गुरुदेव’ है l भगवान दत्तात्रेय जी को परमगुरु माना जाता है l उनकी उपासना गुरु स्वरूप में ही करनी होती है l `श्री गुरुदेव दत्त’, `श्री गुरुदत्त’ ऐसे उनका जयघोष करते है l `दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ यह नाम धुन है l
भगवान दत्तात्रेय के कंधे पर एक झोली रहती है l उसका भावार्थ इस प्रकार से है  – झोली मधुमक्खी का प्रतीक है l मधुमक्खियां जैसे जैसे जगह-जगह पर जा कर शहद एकत्रित करती है और उसका संग्रह करती है, वैसे ही श्री दत्त जगह-जगह घूम कर झोली में भिक्षा एकत्रित करते है l जगह -जगह घूमकर भिक्षा मांगने से अहं शीघ्र कम होता है; इसलिए झोली यह अहं नष्ट होने का प्रतीक है l
दत्त जयंती उत्सव भावपूर्ण होने के लिए यह करे !
स्त्रियों ने साडी और पुरुषों ने कुर्ता -धोती / पायजमा ऐसे सात्त्विक वस्त्र परिधान कर के उत्सव में सहभाग लेना चाहिए  l छात्र ‘श्रीदत्तात्रेयकवच’ का पठन करें व दत्त का नामजप करें l उत्सव के स्थान पर जोर शोर से संगीत ना लगाएं, विद्युत रोशनी जैसे रज-तम निर्माण करने वाली कृति ना करे l दत्त जयंती की फेरी में मंजरी, मृदुंग ऐसे सात्विक वाद्य का उपयोग करें l
आपकी विनम्र
कु. कृतिका खत्री,
सनातन संस्था,  दिल्ली

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